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जरूरत है आम्बेडकर लोहिया एकता की
युवा संवाद - अप्रैल 2018 अंक में प्रकाशित
उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती के बहाने लोहियावादियों और आंबेडरवादियों की नई एकता आज कल तूफान उठाए हुए है। उस एकता में सत्ता परिवर्तन की अल्पकालिक शक्ति तो है ही, उसके सैद्धांतिक समागम में व्यवस्था परिवर्तन की भी शक्ति छुपी है। सवाल है कि क्या सपा और बसपा इसे समझ रही है? उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ आकर कमाल तो किया है। उसी के कारण भाजपा फूलपुर में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट तो हारी ही, साथ ही गोरखपुर की अजेय कही जाने वाली योगी आदित्यनाथ की सीट भी गंवा बैठी।
कयास लगाए जा रहे हैं कि अगर यह गठबंधन आगे भी रहा तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को मुंह की खानी होगी। इस भावी गठबंधन को मजबूत करने के लिए सपा समर्थकों ने आंबेडकर और बसपा वालों ने लोहिया के चित्रों के साथ प्रदर्शन किया है। 1956 में लोहिया और आंबेडकर का मिलन होने से रह गया था और आज उनकी विरासत के दावेदार उस सपने को पूरा करने निकले हैं। सपा और बसपा के कार्यकर्ता गांवों में एक-दूसरे से प्रेम पूर्वक मिलने लगे हैं। विशेष तौर पर सपा से जुड़ी बीच वाली जातियों के लोग दलित जातियों के साथ अतिरिक्त आदर के साथ पेश आने लगे हैं। जानना जरूरी हो जाता है कि आंबेडकर और लोहिया किन मुद्दों पर समान रूप से सोचते थे, उनके मतभेद कहां थे और उनका मिलन भारतीय राजनीति में क्या भूचाल ला सकता था? आंबेडकर और लोहिया दोनों के भीतर भारतीय जाति व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश की ज्वाला धधक रही थी। वे उसे भस्म करके दलितों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के लिए बराबरी पर आधारित समाज बनाना चाहते थे। लोहिया इसे समाजवाद का नाम देते थे, लेकिन आंबेडकर इसे गणतंत्र कहते थे। यह सवाल उठता है कि क्या अखिलेश यादव और मायावती किसी बड़े सपने पर आधारित सैद्धांतिक मिलन की ओर बढ़ रहे हैं या अपनी सत्ता के लिए कोई काम चलाऊ जुगाड़ तैयार कर रहे हैं?
जिन्हें भी सपा-बसपा के इस मिलन को एक दीर्घकालिक सैद्धांतिक औजार बनाना है उन्हें लोहिया और आंबेडकर के उस पत्राचार को जानना चाहिए जो उनके बीच में हुआ था और उनके भीतर के उस आक्रोश को भी समझना चाहिए जो वे समय-समय पर जाति व्यवस्था के घृणित रूप पर व्यक्त करते थे और जिस पर आजकल बड़े-बड़े नेता खामोश रहना ही पसंद करते हैं या उसे सिर झुकाकर मान लेते हैं। आंबेडकर चाहते थे कि वे अपनी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग करके सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाएँ। कांग्रेस के ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए लोहिया को आंबेडकर जैसे दिग्गज बुद्धिजीवी का साथ चाहिए था, अलग-अलग व्यस्तताओं और कार्यक्रम में तालमेल न हो पाने के कारण, वे दोनों तो नहीं मिले, लेकिन लोहिया के दो मित्र विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने आंबेडकर से मुलाकात की थी।
ध्यान रखिए कि उसी महीने में आंबेडकर 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में धम्मदीक्षा लेने जा रहे थे। वहीं साथ में वे लोहिया को भी एक साथ आने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। यानी वे धम्मक्रांति करने के बाद राजनीतिक क्रांति की तैयारी भी कर रहे थे और उस काम में लोहिया उन्हें अच्छे साथी लगे थे। इसी आशा के साथ उन्होंने धम्मदीक्षा लेने के बाद कहा था, ‘मैं धम्मदीक्षा ग्रहण करने के बाद राजनीति नहीं छोड़ूंगा। बैट लेकर पैवेलियन में लौटने वाला खिलाड़ी नहीं हूँ।’
लोहिया ने आंबेडकर 1 अक्तूबर 1956 को लिखा, ‘आपके सुझाए समय पर दिल्ली पहुंच पाने में बिल्कुल असमर्थ हूँ। फिर भी जल्दी से जल्दी आपसे इस बीच आंबेडकर से मिलने वाले लोहिया के मित्रों ने उन्हें 27 सितंबर को पत्र लिखकर पूरा ब्योरा दिया। विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने लोहिया को लिखा, ‘आंबेडकरजी आपसे जरूर मिलना चाहेंगे। वे पार्टी का पूरा साहित्य चाहते हैं और ‘मैनकाइंड’ के सभी अंक। वे इसका पैसा देंगे। वे मजबूत जड़ों वाले एक नए राजनीतिक दल के पक्ष में हैं। वे नहीं समझते कि मार्क्सवादी ढंग का साम्यवाद या समाजवाद हिंदुस्तान के लिए लाभदायक होगा। लेकिन जब हम लोगों ने अपना दृष्टिकोण रखा तो उनकी दिलचस्पी बढ़ी।’ उन्हें कानपुर के आम क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ने का न्योता दिया गया। इस ख्याल को उन्होंने नापंसद नहीं किया, लेकिन कहा कि वे आपसे पूरे भारत के पैमाने पर बात करना चाहते हैं। ऐसा लगा कि वे अनुसूचित जाति संघ से ज्यादा मोह नहीं रखते। श्री नेहरू के बारे में जानकारी लेने में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी। वे दिल्ली से एक अंग्रेजी अखबार भी निकालना चाहते थे। वे हम लोगों के दृष्टिकोण को बहुत सहानुभूति, तबीयत और उत्सुकता के साथ, पूरे विस्तार से समझना चाहते थे। उन्होंने थोड़े विस्तार से इंग्लैंड की प्रजातांत्रिक प्रणाली की चर्चा की जिससे उम्मीदवार चुने जाते हैं और लगता है कि जनतंत्र में उनका दृढ़ विश्वास है।’
आज जब वेदों में सारी आधुनिक विद्या होने का एलान किया जा रहा है, योगियों और साध्वियों के माध्यम से ब्राह्मणवाद नए सिरे से वापस लौट रहा है तब डॉ.। आंबेडकर और डॉ.। लोहिया के अनुयायियों के सामने व्यवस्था परिवर्तन की गंभीर लड़ाई उपस्थित है। क्या वे सिर्फ सत्ता परिवर्तन की तात्कालिक लड़ाई जीतने के लिए तमाम समझौते और जुगाड़ करेंगे या व्यवस्था परिवर्तन के सैद्धांतिक सवालों को उठाने का खतरा मोल लेंगे?