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न्यायमूर्तियों की गुहार: विभ्रम और यथार्थ

युवा संवाद -  फरवरी 2018 अंक में प्रकाशित

सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध खुली बगावत करके यह संकेत दे दिया है कि देश के संविधान की रक्षा करने वाली सबसे विश्वसनीय संस्था में कुछ ज्यादा ही गड़बड़ है। अगर ऐसा न होता तो देश की एक सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था से जुड़े न्यायमूर्ति जस्टिस चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ

अपना दुखड़ा सुनाने मीडिया के समक्ष न आते। उन्होंने ऐसा करके अच्छा किया या बुरा इस पर विवाद चलता रहेगा। लेकिन इस दौरान लोकतंत्र और संविधान के शुभेच्छुओं को सोचना होगा कि इस काम से लोकतंत्र का कितना भला होगा और कितना नुकसान। लोकतंत्र में बहुमत को सर्वश्रेष्ठ मानने वालों का तर्क है कि इन चारों ने गंभीर अपराध किया है और इनकी बगावत के पीछे कोई गहरी साजिश है। ऐसा कहने वाले न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना को भूल जाते हैं जिन्होंने अल्पमत में रहते हुए संविधान की अंतरात्मा को बचाकर रखा और आपातकाल में भी नागरिक अधिकारों की हिफाजत का सवाल उठाया। इस बीच उन जजों को बदनाम करने और उन पर महाभियोग चलाने की मांग भी उठ रही है। इसी के साथ यह बात भी कही जाने लगी है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनी नियुक्तियों के लिए बनाई गई काॅलेजियम प्रणाली दोषपूर्ण है और उसे बदल कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग(एनजेएसी) लाया जाना चाहिए। रोचक तथ्य यह है कि विद्रोह करने वाले जजों में सबसे वरिष्ठ जज चेलमेश्वर स्वयं काॅलेजियम प्रणाली के विरुद्ध फैसला भी दे चुके हैं। इस बीच समस्या को सुलझाने के लिए देश के महाधिवक्ता वेणुगोपाल की सुलह की कोशिशें उतनी जल्दी असर नहीं दिखा रही हैं जितनी जल्दी उन्हें उम्मीद थी। इससे लगता है कि विवाद के पीछेसिर्फ मस्टर रोस्टर का मामला ही नहीं है। मामला उससे भी कहीं ज्यादा गंभीर है। हालांकि जजों ने जिन विवादों को अपनी प्रेस कांफ्रेंस का उद्देश्य बताया था उनमें एक प्रमुख मामला यह था कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा राष्ट्रीय महत्त्व के मुकदमों का आवंटन वरिष्ठजजों को न करके जूनियर जजों को करते हैं और उन्होंने न सिर्फ अपने भ्रष्टाचार का मामला मनपसंद जज को सौंपा बल्कि शोहराबुद्दीन मुठभेड़ के मामले में सीबीआई अदालत में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह के विरुद्ध मामले की सुनवाई कर रहे जज बृज गोपाल लोया की हत्या के मामले में मनमाफिक जज को दे दिया। उनका आरोप यह भी था कि मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बात नहीं सुनी तब वे प्रेस के सामने आने को मजबूर हुए ताकि आने वाले समय में कोई यह न कह सके जब लोकतंत्र की हत्या हो रही थी तब वे खामोश थे। जजों का यह भी कहना था कि जब जजों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया सहमति पत्र पर बड़ी पीठ का फैसला हो चुका था और उसे सरकार के पास भेजा जा चुका था तो मुख्य न्यायाधीश ने छोटी पीठ बनाकर उसकी सुनवाई क्यों शुरू कर दी।

 

जानकारियां बताती हैं कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास मस्टर रोस्टर का अधिकार होता है और वे अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए मुकदमों का आवंटन करते हैं। तर्क उठता है कि क्या भारत के मुख्य न्यायाधीश बाकी जजों के अधिकारी होते हैं या सैद्धांतिक रूप से सभी जज बराबर होते हैं और वे उन बराबर लोगों में थोड़ा ज्यादा बराबर होते हैं। इस बीच यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि मुख्य न्यायाधीश ने जो संविधान पीठ बनाई है उसमें इन तीन वरिष्ठ जजों को नहीं रखा है। तथ्य बताते हैं कि पहले भी मुख्य न्यायाधीश मस्टर रोस्टर पर मनमाफिक फैसला लेते रहे हैं।

 

इसलिए सवाल उठता है कि इस बार ऐसा क्या हो रहा है जो देश की इस श्रेष्ठ महत्त्व की संस्था में बेचैनी पैदा कर रहा है?संभव है कि मौजूदा मोदी सरकार जो अपने मनमानेपन में इंदिरा गांधी सरकार से कहीं कम नहीं है वह एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका तैयार करने के लिए प्रयासरत हो और इसीलिए मौजूदा समस्या पैदा हो रही हो। दरअसल जब भी केंद्र में मजबूत सरकारें बनती हैं तो न्यायपालिका दबाव में आती है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल में वरिष्ठताक्रम दरकिनार करके मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था और उसके बाद विवाद उठा था। तब यह भी सवाल उठाया जाता था कि न्यायपालिका पूंजीवाद की हिमायत करती है और सरकार समाजवाद की, इसलिए टकराव होता है। लेकिन जब न्यायपालिका को मौका मिला और केंद्र में गठबंधन की कमजोर सरकार बनी तो उसने अपने ही एक फैसले में यह तय किया कि अब जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट ही करेगा और एक काॅलेजियम बना डाला। उस प्रणाली को खत्म करने की तैयारी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार भी कर रही थी और यह प्रयास भाजपा नीत एनडीए सरकार भी कर रही है। यह रस्साकसी अभी लंबी चलेगी और संभव है कि इससे गंभीर टकराव निकले। इस दौरान एनजेएसी को लागू करने की मांग जोर

पकड़ सकती है और काॅलेजियम को बेहतर बनाने की भी। एक बात जरूर याद रखनी चाहिए कि एनजेएसी का फैसला देते समय पूर्व न्यायाधीश खेहर ने आडवाणी का उल्लेख करते हुए कहा था कि देश पर आपातकाल थोपने वाली ताकतें अभी भी सक्रिय हैं और उनसे देश को न तो एनजीओ बचा सकते हैं और न ही पूंजीपतियों के सहारे चलने वाला मीडिया। उनसे देश को न्यायपालिका ही बचा सकती है और इसीलिए उसे स्वायत्त रहना चाहिए।