www.yuvasamvad.org

CURRENT ISSUE | ARCHIVE | SUBSCRIBE | ADVERTISE | CONTACT

सम्पादकीय एवं प्रबन्ध कार्यालय

167 ए/जी.एच-2

पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063

फोन - + 91- 7303608800

ई-मेल – ysamvad[~at] gmail.com

मुख्य पृष्ठ  *  पिछले संस्करण  *  परिचय  *  संपादक की पसंद

सदस्यता लें  *  आपके सुझाव

मुख्य पृष्ठ  *  पिछले संस्करण  *  परिचय  *  संपादक की पसंद  *  सदस्यता लें  *  आपके सुझाव

शांतता कोर्ट चालू आहे

युवा संवाद -  मई 2018 अंक में प्रकाशित

अगर हम देश की मौजूदा स्थिति पर नजर डालें तो लगेगा का विजय तेंदुलकर के नाटक ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ (खामोश अदालत जारी है) का मंचन हो रहा है। 1963 में लिखे गए इस नाटक का पहली बार 1971 में मंचन हुआ था। यह नाटक बताता है कि भारतीय समाज किस तरह से स्त्री विरोधी है और वह उसके चरित्र को लांछित करना अपना धर्म समझता है। लेकिन ऐसा करने में हमारी न्याय प्रक्रिया, सामंती व्यवस्था और पुलिस प्रशासन स्वयं लांछित होते हैं और कटघरे में खड़ा हो जाता है इंसाफ और बराबरी का आश्वासन देने वाला संविधान। हम मानते थे कि विजय तेंदुलकर का नाटक अब अप्रासंगिक हो चुका है और हमारा समाज और उसकी न्याय व्यवस्था जाति, धर्म और लिंग के पक्षपात से निकल चुकी है। दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय फलक पर न्याय घने बादलों के बीच घिर गया है और वह समाज को न तो आलोकित कर पा रहा है और न ही आश्वस्त। लगता है कि भारतीय समाज हिंसा और प्रतिहिंसा की ज्वाला में जल रहा है और कोई उसे राह दिखाने वाला नहीं है। देश की कमान संभाल रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने देशवासियों के भरोसे और विश्वास की नहीं विदेश में अपनी छवि की चिंता है तो विपक्ष को किसी मसले का हल निकालने की बजाय दिखावे के लिए चर्चा में बने रहने की।

 

यह सारी परिस्थितियां एक तरफ कठुआ से उन्नाव तक बलात्कार के दृश्य उपस्थित करती हैं तो दूसरी तरफ जज बृजमोहन हरिकिशन लोया की मौत की जांच से इनकार करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव प्रस्तुत करती है। इस बीच हैदराबाद की मक्का मस्जिद के विस्फोट में संघ परिवार से जुड़े अभियुक्त स्वामी असीमानंद बरी हो जाते हैं तो नरोदा पाटिया केस में पहले सजा पा चुकी मोदी सरकार की मंत्री माया कोडनानी छूट जाती हैं। ध्यान देने की बात है कि यह सारे मामले हिंदुत्व के योद्धाओं के विरुद्ध चल रहे थे और इनमें फर्जी मुठभेड़ और दंगे जैसे अपराध शामिल हैं।पहले उन्हें भगवा आतंकवाद कहा जाता था तो अब उसे निर्दोष राष्ट्रवाद बताया जा रहा है। अगर जज बीएच लोया की मृत्यु का मामला शोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ में देश के दूसरे नंबर के ताकतवर व्यक्ति अमित शाह को दोषी व निर्दोष बताने से जुड़ा है तो माया कोडनानी का मामला गुजरात के 2002 के भयावह दंगे से। उन्नाव में भाजपा विधायक द्वारा नाबालिग से बलात्कार का मामला साल भर से एफआईआर का इंतजार कर रहा था और वह तभी दर्ज हो पाया जब उसके पिता को मार दिया गया, मीडिया ने उसे मुद्दा बनाया और बाद में हाई कोर्ट का हस्तक्षेप हुआ। यह मामला सत्ता के मद में चूर एक विधायक के पार्टी और जाति द्वारा संरक्षण का शास्त्रीय उदाहरण था जहाँ न जनता का सम्मान है न ही स्त्री का। कठुआ में बक्करवाल समुदाय की नाबालिग बच्ची से बलात्कार की घटना सांप्रदायिक घृणा और

 

 

प्रतिशोध का उदाहरण है जहाँ धर्म के नाम पर सर्वाधिक अधार्मिक और अमानवीय कार्य को भी सही ठहराया जाता है। हाल में नेशनल फारेंसिक लैब ने इस बात की पुष्टि की हैमंदिर में जो सबूत मिले हैं वे आशिफा नाम की बच्ची के ही हैं और बलात्कार करने वाले अपराधियों के। यानी बलात्कार मंदिर में ही हुआ और उद्देश्य था एक घुमंतू समुदाय को सबक सिखाना ताकि वह उन जमीनों को छोड़ दे जहां वह पारंपरिक तरीके से रहते आए हैं। विडंबना देखिए कि उस अपराध में शामिल लोगों को बचाने के लिए भाजपा के दो मंत्री, वकील और हिंदू एकता मंच सक्रिय हैं।

 

न्यायिक पक्षपात का दूसरा उदाहरण उस समय उपस्थित हुआ जब अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम 1989 की धारा 16 को कमजोर करने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। उसके विरोध में पूरे देश में दलितों संगठनों का प्रदर्शन होता है और उस दौरान अनुशासनहीनता, अराजकता और हिंसा भी होती है। लेकिन वह मामला वहीं नहीं थमता बल्कि जातिगत विद्वेष और हिंसा की ओर जाता है। आखिर में सत्ता के लिए दलितों की सौदेबाजी करने वाले रामविलास पासवान जैसे नेताओं को कहना पड़ता है कि उच्च न्यायपालिका में भी आरक्षण होना चाहिए। कुल स्थिति यह है कि कभी कभार इंसाफ का क्षणिक अहसास देने वाली न्यायपालिका व्यापक तौर पर कार्यपालिका के दबाव में है। उसकी स्वतंत्रता जनता के हितों और संविधान के लिए न होकर अपनी संस्थागत दायरे में व्याख्यायित हो रही है और वह भी हो नहीं पा रही है। अगर न्यायपालिका कालेजियम प्रणाली पर कुंडली मार कर बैठी है तो कार्यपालिका उसकी सिफारिशों पर। न्यायपालिका के चार वरिष्ठ जज स्पष्ट तौर पर पक्षपात की बात कह कर प्रेस कांफ्रेंस कर चुके हैं और मानते हैं कि भारत के मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट हैं। गंगोत्री से गंगासागर तक न्याय की गंगा की यह दशा भारतीय लोकतंत्र को भयभीत कर रही है। सिर्फ न्यायपालिका ही नहीं पूरा लोकतंत्र प्रदूषित हो रहा है। सत्ता पक्ष तो नैतिकताविहीन है और हर संस्था की छवि को नष्ट करने पर आमादा है। वह या तो संस्था का हिंदूकरण करना चाहता है या फिर उसे शासक दल की शाखा बना देना। दलित, अल्पसंख्यक, स्त्रियां और आदिवासी सभी असुरक्षित और न्याय से महरूम हैं। न्याय की निष्पक्ष अवधारणा और स्वतंत्र न्यायपालिका खंडित हो चुकी है। विपक्ष कहता है कि मौजूदा संकट में उसके पास महाभियोग प्रस्तुत करने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन इस महाभियोग का स्वीकार किया जाना भी संदिग्ध है। पारित होना तो बहुत दूर की बात। जिस तरह सत्ता पक्ष ने बजट सत्र के अंतिम चरण में आए अविश्वास प्रस्ताव को पेश नहीं होने दिया उसी प्रकार वह इसे भी शायद ही पेश होने दे। जाहिर है लोकतंत्र की यह अदालत अपने को ही खारिज कर रही है। और वे यह कह कर हंस रहे हैं कि लोकतंत्र का अंतिम क्षण आ चुका है।