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गांधी के आगे लाचार नफरती लोग

युवा संवाद नवंबर 2022 अंक में प्रकाशित

जिन लोगों को चित्रकारी नहीं आती, उन्हें अगर गांधीजी का चित्र बनाने कहा जाए, तो वे गोल चश्मे, बिना बालों के सिर और एक लाठी की तस्वीर बनाकर गांधीजी को चित्रित कर ही देंगे। क्योंकि ये तीनों ही गांधीजी की पहचान के साथ चस्पा हो गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे सत्य और अहिंसा के सिद्धांत गांधीवाद की खास पहचान हैं। लेकिन अखिल भारतीय हिंदू महासभा की पश्चिम बंगाल प्रदेश इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी का कहना है कि एक सिर पर बिना बालों वाले और चश्मा पहने हुए व्यक्ति गांधी हों, जरूरी नहीं। श्री गोस्वामी यह सफाई दुर्गा पंडाल में महिषासुर की जगह गांधीजी जैसे दिखने वाली मूर्ति को लगाने पर दे रहे थे।

 

दरअसल कोलकाता में अखिल भारतीय हिंदू महासभा पूजा के आयोजकों की ओर से दुर्गा पूजा पंडाल में देवी की भव्य प्रतिमा के नीचे एक असुर की जगह पर सिर मुंडे और चश्मा पहने बुजुर्ग व्यक्ति की मूर्ति थी। मूर्ति में जो चेहरा बनाया गया वह बापू जैसी ही दिख रहा था। एक बच्चे से भी अगर किसी राक्षस को चित्रित करने कहें तो वह विशालकाय, लाल आंखों, और भयावह मुख मुद्रा का चेहरा बनाएगा। लेकिन हिंदू महासभा के पदाधिकारी मासूम सफाई पेश कर रहे थे कि असुर के हाथों में एक ढाल है। गांधी ने कभी ढाल नहीं रखा। यह संयोग ही है कि हमारा ‘असुर’ जिसका मां दुर्गा संहार कर रही हैं, वह गांधी जैसा दिखता है। साथ ही में उन्होंने ये भी कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी की भूमिका के लिए उनकी आलोचना की जानी चाहिए। बहरहाल, महिषासुर की जगह गांधीजी जैसी मूर्ति बनाने पर सभी दलों ने कड़ी आलोचना की और राजनैतिक विवाद बढ़ा तो अब रातों रात मूर्ति की आंखों से चश्मा हटा कर चेहरे पर मूंछ लगा दी गई और सिर पर नकली बाल लगा दिए गए।

 

मूर्ति की सूरत तो बदल गई, लेकिन देश में राष्ट्रपिता के खिलाफ जो सोच और नफरत लोगों के मन में भर दी गई है, वह कैसे बदलेगी, यह इस वक्त का यक्ष प्रश्न है। गांधी जयंती और पुण्यतिथि दोनों ही तारीखों पर ऐसी घटनाएं होने लगी हैं, जिन्हें पहले महापाप की तरह देखा जाता था। बापू से नफरत करने वाले लोग तो इस देश में हमेशा से रहे हैं, लेकिन उस नफरत का सरेआम इजहार करना और उसे बढ़ावा देना, यह पिछले कुछ सालों का चलन है। इन बीते सालों में अल्पसंख्यकों से देशभक्ति के कई प्रमाण मांगे गए या उन्हें पाकिस्तान जाने की नसीहत दी गई, राष्ट्रवाद के उन्माद में सांप्रदायिक सद्भाव के ताने-बाने को ध्वस्त किया गया, इतिहास की नए सिरे से व्याख्या और पुनर्लेखन किया गया, स्वाधीनता संग्राम के महापुरुषों पर हक जताने का सिलसिला भी खूब चला, लेकिन जिन मूल्यों के लिए और जिन मूल्यों के साथ आजादी की लड़ाई लड़ी गई, उन्हें बड़ी चालाकी से दरकिनार किया गया।

आजादी महज अंग्रेजी राज का भारत में खात्मा नहीं था, बल्कि इसका मकसद लोकतंत्र, समानता, बंधुत्व और उदारता के मूल्यों के साथ एक नए राष्ट्र का निर्माण भी था। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव की महान भारतीय परंपरा को फिर से स्थापित करना आजादी की लड़ाई का उद्देश्य था। हिंदुस्तान के हरेक नागरिक को बराबरी और सम्मान के साथ रहने का अवसर मिले, इसे सच्ची आजादी माना गया था। गांधीजी इन्हीं मूल्यों के साथ चलते थे और अपने आंदोलनों में इन्हीं को नींव बनाते थे। वे किसी से अपना अनुयायी बनने नहीं कहते थे, न ही किसी को अपनी जीवनशैली अपनाने कहते थे। लेकिन जो लोग उनके साथ चलें वे इन्हीं मूल्यों को मानें और सत्य-अहिंसा के सिद्धांत पर चलें, यह गांधीजी जरूर चाहते थे। इसलिए चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने तेजी से सफल हो रहे असहयोग आंदोलन को खत्म कर दिया, क्योंकि हिंसा की उनके आंदोलन में कोई जगह नहीं थी। इसी तरह जब सारा देश आजादी की खुशियां मना रहा था, तो गांधीजी नोआखाली की दंगाग्रस्त गलियों में घूम रहे थे। गांधीजी की नैतिक शक्ति और आत्मबल के कारण उनकी विचारधारा से पूरी तरह सहमत न होने वाले सुभाषचंद्र बोस और भगत सिंह जैसे अमर स्वाधीनता सेनानियों ने हमेशा उनका सम्मान किया। लेकिन आज के भारत में खुद को नेताजी और भगत सिंह के अनुयायी बताने वाले चंद लोग गांधीजी का न केवल अपमान करने पर तुले हैं, बल्कि उनका बस चले तो वे बार-बार गांधीजी की हत्या कर दें।

 

बीते कुछ समय में धर्म संसद के मंच से गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिममंडन किया गया। गांधीजी की मूर्ति को गोली मारकर उनकी हत्या का दृश्य दोहराने का आनंद लिया गया। गोडसे और उसके साथियों की प्रतिमा लगाकर जयघोष किया गया। संसद के भीतर भी गोडसे का नाम लिया गया और अब उन्हें असुर की जगह दिखाया गया। ये सारे काम कायदे से देशद्रोह की श्रेणी में आने चाहिए, क्योंकि राष्ट्रपिता के हत्यारे का साथ देने वाले देशद्रोही ही कहे जाएंगे। मगर इस वक्त देशद्रोह और देशप्रेम दोनों नए सिरे से परिभाषित हो चुके हैं। लेकिन याद रहे कि आज भले ही गांधी के हत्यारों की पूजा का युग आ गया हो, दुनिया अब भी गोडसे नहीं, गांधी के सिद्धांतों को महान मानती है। दुनिया के कई देशों में गांधीजी की मूर्तियां हैं, कई देशों ने उन पर डाक टिकट जारी की है और संयुक्त राष्ट्र सिद्धांत 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस मनाता है। यह सारे काम इस बात का सबूत हैं कि दुनिया सत्य, अहिंसा, करुणा, दया जैसे सिद्धांतों के बल पर कायम रहेगी, नफरत से केवल उसका खात्मा होगा।

 

गांधीजी के सिद्धांतों के आगे नफरत के सौदागर खुद को लाचार महसूस करते हैं, इसलिए उनकी एक बार हत्या के बाद बार-बार उन्हें मारने की कोशिश करते हैं, मगर उन्हें वैचारिक तौर पर मार नहीं पाते। उनकी यह लाचारगी तब तक बनी रहेगी, जब तक वे नफरत का कारोबार करते रहेंगे।