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सियासी कैद में कश्मीर

युवा संवाद - अक्टूबर 2019 अंक में प्रकाशित

लगभग डेढ़ महीने बाद भी कश्मीर में न बंदूकधारी अर्द्धसैनिक बलों, सेना का पहरा घटा है, न कंटीले तारों से सड़कों-मोहल्लों की नाकेबंदी हटी है, न गिरफ्तारियों में कोई ढील आई है, न संचार के ज्यादातर साधन मोबाइल, इंटरनेट ही खुले हैं, फिर भी सरकार की नजर में स्थिति ‘सामान्य’ है। बाहर से पहुंचने वाले विपक्षी नेताओं को श्रीनगर हवाई अड्डे से लौटने या जबरन लौटा दिए जाने का ‘हुक्मनामा’ जारी है, जैसा कि हाल में कश्मीर के वार्ताकार रह चुके, पूर्व वित्त तथा विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा के साथ भी हुआ। सुप्रीम कोर्ट से माकपा नेता सीताराम येचुरी और कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद को घाटी में जाने की इजाजत भी मिली तो इस हिदायत के साथ कि राजनीति न करें। लेकिन श्रीनगर और जम्मू में भाजपा के राजनैतिक कार्यक्रमों पर कोई पाबंदी नहीं है, गोया राजनीति करने का अधिकार अब देश में सिर्फ भाजपा को ही है। लेकिन हैरानी तो अधिकांश मीडिया, खासकर टीवी चैनलों और न्यायपालिका तक के रवैए से होती है। लोकतंत्र की रखवाली के जिम्मेदार ये स्तंभ सरकारी अफसाने पर दो-टूक भरोसा और उसके हर तरह के विपक्ष पर गहरा संदेह करते दिख रहे हैं जबकि उनका दायित्व सरकार से सवाल करने की मांग करता है।

 

मीडिया की कथा तो अब ऐसी हो चली है कि उस पर चर्चा करना भी वक्त की बर्बादी लगता है। लेकिन न्यायपालिका से ‘निराशा’ वाकई संगीन मामला है। जैसा कि यशवंत सिन्हा ने जबरन दिल्ली लौटाए जाने के बाद कहा, ‘मैं न्यायपालिक, खासकर सर्वोच्च अदालत के रवैए से बेहद निराश हूं। मुझे कोई उम्मीद नहीं है इसलिए मैं अदालत का दरवाजा खटखटाने नहीं जाऊंगा। फिर सुप्रीम कोर्ट कश्मीर जाने के लिए कोई वीजा अथाॅरिटी थोड़े ही है।’ ऐसी ही निराशा दुश्यंत दवे, प्रशांत भूषण जैसे कई अहम और वरिष्ठ वकील भी जाहिर कर चुके हैं। इसकी वजहें भी हैं। सुप्रीम कोर्ट तक में हैवियस काॅर्पस जैसी अर्जी का फौरन संज्ञान नहीं लिया गया। एक मामले में तो यह कहा गया कि हाईकोर्ट जाना चाहिए। अर्जी वाले वकील ने जब कहा कि ईकोर्ट में जाने की स्थितियां नहीं हैं तो हिदायत दी गई कि ऐसा नहीं पाया गया तो नतीजा भुगतना पड़ेगा। लेकिन अब एक अखबार की खबर से पता चल रहा है कि जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में 5 अगस्त के बाद से कम से कम 252 हैवियस काॅर्पस अर्जियां सुनवाई का मुंह जोह रही है। कई तो अभी स्वीकार भी नहीं की गई है।

 

यह सब 5 अगस्त के कमोवेश हफ्ता भर पहले ही शुरू हो गया था, जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जे को हटाने और राज्य को दो केंद्र-शासित प्रदेशों जम्मू कश्मीर और लद्दाख में बांटने का फैसला किया। ये हालात बताते हैं कि कम से कम कश्मीर घाटी में स्थितियां केंद्र के काबू में नहीं हैं। सबसे खतरनाक यह है कि सरकार के स्कूल और दुकानें वगैरह खोलने के दावे के बावजूद स्कूलों में न बच्चे पहुंच रहे हैं, न दुकानें खुल रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया और दूसरे स्रोतों से छन-छनकर आ रही खबरों के मुताबिक कुछेक इलाकों में दुकानें खुल भी रही हैं तो सिर्फ सुबह-शाम एक-दो घंटों के लिए क्योंकि लोग सड़कों पर निकलने का जोखिम उठाने से बच रहे हैं। दुकानों में भी सामान खाली हो रहे हैं क्योंकि सामान की आपूर्ति नहीं हो पा रही है।

कहा यह भी जा रहा है कि एक तरह का सिविल कफ्र्यूष् जारी है। यह एक नए तरह की सिविल नाफरमानी है। यानी लोग घरों से बेहद जरूरी न होने पर नहीं निकल रहे हैं क्योंकि हर जगह पहले पर खड़े पुलिसवाले सैकड़ों सवाल करते हैं। जवान लड़कों को पकड़कर बिना कोई कारण बताए हवालात में कैद रखने और उत्पीड़न की कई खबरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाई हुई हैं। कहा यह भी जा रहा है कि कश्मीर की जेलों और पुलिस थानों की हवालात में अब जगह नहीं बची है तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की जेलों में भेजा जा रहा है। लेकिन सरकार के लिए यह सब ष्सामान्यष् स्थितियां हैं। मीडिया का ज्यादातर हिस्सा सरकार से इस ष्सामान्यष् का मतलब जानने के लिए सवाल करने से परहेज करता है। विडंबना देखिए कि संसद में गृह मंत्री अमित शाह कह चुके हैंए ष्फारूक साहब न गिरफ्तार हैंए न नजरबंद। वे घर में हैंए मौज.मस्ती में हैण्ण्ण्वे नहीं आ रहे हैं तो कनपटी पर बंदूक रखकर लाऊं क्या! लेकिन तमिलनाडु के पीएम के नेता वायको ने सुप्रीम कोर्ट में हैवियस काॅर्पस अर्जी डाली तो उन्हें फौरन सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत घर में ही नजरबंद कर दिया गया।

 

चिन्ता की बात यह भी है कि कश्मीर में ढेरों लोग जो रोज-ब-रोज कमा करके घर-परिवार चलाते होंगे, खासकर कारीगर, मजदूर वगैरह उनकी हालत क्या होगी। कश्मीर में अर्थव्यवस्था के दो प्रमुख उपक्रमों सेब टूटने और पर्यटन का यही मौसम है। लेकिन सबसे बड़ी सोपोर तक की मंडी बंद है या थोड़ा-बहुत काम ही हो रहा है। सभी पर्यटकों से तो घाटी 5 अगस्त के पहले ही खाली करा ली गई थी। इस सैलानी मौसम में गुलमर्ग जैसे इलाके में सन्नाटा है, बल्कि वहां सेना की गतिविधि बड़े पैमाने से बढ़ने पर घाटी में ये भी सुगबुगाहटें हैं कि सेना वहां कोई डिपो बनाने की योजना बना रही है। जो भी हो रहा है समझ से परे है।