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महंगाई के संकेत

युवा संवाद -  अप्रैल 2017 अंक में प्रकाशित

जब यह खबर आई कि विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त कामयाबी मिली तब शेयर बाजार ने काफी उत्साहजनक प्रतिक्रिया दिखाई, मुंबई के संवेदी सूचकांक में एक ही रोज में सैकड़ों अंकों का इजाफा हुआ। इस प्रतिक्रिया को समझना मुश्किल नहीं है। दरअसल, निवेशकों को लगा होगा कि अब राज्यसभा में भाजपा की मुश्किलें कम होंगी और बाजार-केंद्रित आर्थिक सुधार के कदमों में तेजी आएगी। लेकिन इसी दिन अर्थव्यवस्था की बाबत एक और खबर आई जो चिंताजनक ही कही जाएगी। खबर यह कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई का ग्राफ फरवरी में चढ़ गया। यों मुद्रास्फीति की दर में थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव होता रहता है। पर ताजा आंकड़े की खास बात यह है कि डब्ल्यूपीआइ यानी थोक महंगाई सूचंकाक 39 महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की तरफ से जारी किए गए ताजा आंकड़ों के मुताबिक फरवरी में थोक मूल्य सूचकांक 6.55 फीसद पर पहुंच गया, जो कि इससे पहले के महीने यानि जनवरी में 5.25 फीसद था। सबसे ज्यादा वृद्धि खनिजर्, इंधन और ऊर्जा के मामले में हुई है, पर खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी तेज बढ़ोतरी का रुझान दिखा है।

 

महंगाई के सरकारी आकडे पूरा सच नहीं बताते क्योंकि यह आंकड़े कई वस्तुओं की औसत कीमत में वृद्धि को दर्शाते हैं, और यह बात छुपाते हैं कि जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें अन्य कीमतों के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ी हैं। उदहारण के तौर पर पिछले साल सरकारी आंकड़ो के अनुसार महंगाई केवल 3 प्रतिशत थी जबकि उसी दौरान खाद्य पदार्थों के भाव 20 प्रतिशत बढ़े। और सबसे महत्वपूर्ण दम, श्रम का दाम (यानि आय या मजदूरी) नहीं बढ़ी है। अगर हर चीज के दाम में एक जैसे वृद्धि होती है, तो इसका जीवन स्तर पर कोई खास असर नहीं होता। यानि अगर आटे-दाल के भाव के साथ-साथ मजदूरी या वेतन भी उतनी ही तेजी से बढ़े तो इसका कोई परिणाम नहीं होगा। दाल का भाव दुगुना हुआ और साथ ही साथ मजदूरी भी दुगुनी हुई, तो कोई परेशानी की बात नहीं। लेकिन ऐसा नहीं होता। हमारे देश की अधिकांश जनता जो लोकविद्याधर हैं, फिर वह किसान हो, कारीगर हो, छोटे धंधे वाले हो, इनकी आय सरकारी या अन्य संघठित उद्योगों में पाए जाने वाले वेतन कि तरह महंगाई के हिसाब से अपने-आप नहीं बढ़ती। हाल में जो महंगाई का दौर चला है उसमे एक साल में दालें, दूध, चावल, फल आदि की कीमतों ने तो आस्मां छू लिया है (पांच साल में 40-80 प्रतिशत बढ़ोतरी) पर किसानों, कारीगरों, और मजदूरों की आय में बढ़ोतरी नहीं के बराबर हुई है। बल्कि कई जगहों पर, जैसे हथकरघा उद्योग में और किसानी में, आय या मजदूरी घटी है। जब मजदूरी घटती है और कीमतें बढ़ती हैं, तो बाजार जाने वाले को दुगुना सदमा पहुंचता है।

ताजा आंकड़े क्यों चिंताजनक है इसका अंदाजा फकत इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि महज तीन महीने पहले, दिसंबर 2016 में थोक महंगाई सूचकांक (संशोधित अनुमान के मुताबिक) सिर्फ 3.68 फीसद पर था। ताजा आंकड़ों के मुताबिक फरवरी में खनिज की कीमतों में इकतीस फीसद और्र इंधन की कीमतों में इक्कीस फीसद की बढ़ोतरी हुई है। जहां तक खाद्य पदार्थों की बात है, जनवरी में इनकी कीमतों में 0.56 फीसद की कमी दर्ज हुई थी, मगर फरवरी में 2.69 फीसद की तेज बढ़ोतरी हुई है। यह एकदम अप्रत्याशित नहीं है। रिजर्व बैंक ने कोई सवा महीने पहले जब पिछली मौद्रिक समीक्षा जारी की थी, तो बहुत-से लोगों की उम्मीदों के विपरीत उसने रेपो दरों में कोई कटौती नहीं की। उसे आशंका थी कि कीमतें चढ़ सकती हैं। इसके पीछे यह अनुमान काम कर रहा था कि नोटबंदी की वजह से मांग धीमी पड़ी है, जिससे कीमतें ठहरी हुई हैं, या किसी-किसी मामले में कुछ नीचे भी आई हैं, जैसे ही क्रय-विक्रय सामान्य होगा, कीमतें चढ़ सकती हैं। दूसरे, उसे लग रहा था कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन का असर अभी पूरी तरह से उजागर नहीं हुआ है, आगे इसका असर कीमतों में बढ़ोतरी ही लाएगा। रिजर्व बैंक की आशंका अब सही साबित होती दिख रही है।

 

नोटबंदी के बाद कुछ दिनों तक महंगाई से राहत का जो आभास दिया जा रहा था उसकी कृत्रिमता अब सामने आने लगी है। यह भी गौरतलब है कि आम लोग रोजाना जो दंश बाजार में महसूस करते हैं उसका ठीक अंदाजा थोक मूल्य सूचकांक से नहीं हो सकता, क्योंकि उनका वास्ता थोक बाजार से नहीं, खुदरा बाजार से होता है और खुदरा महंगाई दर हमेशा थोक महंगाई दर से ज्यादा होती है। अगर थोक मूल्य सूचकांक फरवरी में करीब साढ़े छह फीसद पर पहुंच गया, तो जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित आंकड़े आएंगे, तो कैसी तस्वीर उभरेगी इसका थोड़ा- बहुत अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अब एक बार फिर रिजर्व बैंक को इस मुश्किल सवाल से जूझना होगा कि नीतिगत दरों में कटौती की जाए या नहीं। रिजर्व बैंक जो करे, पर यह बार-बार का अनुभव है कि मौद्रिक नीति की अपनी सीमाएं हैं। महंगाई से निपटने की ज्यादा उम्मीद रिजर्व बैंक से नहीं, सरकार से की जानी चाहिए।