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जनविरोधी नीतियों के पैरोकार

युवा संवाद -  अगस्त 2017 अंक में प्रकाशित

जीएसटी के बारे में प्रधानमंत्री जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, वह उतना ही रहस्यमय, एक अबूझ पहेली की शक्ल लेता जा रहा है। ‘एक देश, एक कर’ - जिस बात पर संसद में आधी रात को भूतों की तरह का जश्न मनाया गया, अब यह साफ हो चुका है कि इस बात का इस पूरे फसाने में कोई स्थान ही नहीं है। इसमें न एक राष्ट्र है और न एक कर ही।

 

पेट्रोलियम पदार्थों, बिजली, शराब और रीयल इस्टेट की तरह के सबसे अधिक राजस्व पैदा करने वाले चार प्रमुख क्षेत्रों को इस जीएसटी से बाहर रखा गया है। अर्थात् इन चारों चीजों पर प्रत्येक राज्य में करों की दर अलग-अलग होगी जिसे राज्य सरकारें अपनी मर्जी से तय करेगी। अर्थात्, ‘एक राष्ट्र’ का दावा कोरा धोखा है। यही हाल है  ‘एक कर’ के दावे का है। इसमें अब तक कर की दरों के सात स्लैब सामने आए हैं - 0%, 0.25%, 3%, 5%, 12%, 18% और 28%।

 

सरकार के लोग सरासर झूठ बोल रहे हैं कि आगे वे इन सब स्लैब्स को कम करके एक अथवा दो तक सीमित कर देंगे। इसके विपरीत सचाई यह है कि इसमें अधिकतम 28 प्रतिशत की दर को बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की व्यवस्था रखी गई है। इसके अलावा आज जिस चीज पर जितना प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है, कल उसे बदल कर दूसरे स्लैब में नहीं डाला जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। 30 जून की आधी रात के चंद घंटों पहले तक कुछ चीजों को एक स्लैब से निकाल कर दूसरे स्लैब में डाला गया है। अर्थात, कर की दरों के मामले में भी हमेशा पूरी अराजकता की स्थिति बनी रहेगी। इसीलिए जीएसटी का भारी उत्सव मनाने के लिए जो तमाम बड़े-बड़े दावे किए जा रहे थे, वास्तविकता में उन बातों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिस चीज का वैसा कोई अस्तित्व ही न हो, फिर भी उसका ढोल पीटा जाए, तो इसे धोखा या अबूझ पहेली नहीं तो और क्या कहा जाएगा?

 

यही नहीं, जीएसटी प्रणाली में गरीब और अमीर एक दर से कर देंगे - यह कहना भी एक सफेद झूठ है। थोड़ी सी गहराई में जाने से ही साफ हो जाता है कि इस व्यवस्था में गरीब ज्यादा दर से कर देगा और अमीर कम दर से। सुपर मार्केट में चीजें सस्ती होंगी, मोहल्ले की परचून की दुकान, यहां तक कि पटरी वाले की चीजें भी महंगी होगी।सुपर मार्केट वाले इनपुट क्रेडिट का भरपूर लाभ लेंगे, परचूनिया कुछ नहीं ले पाएगा। बड़े व्यापारी अपने कारोबार के विस्तार और आधुनिकीकरण के खर्च का एक हिस्सा भी इसी जीएसटी के इनपुट क्रेडिट से उठा लेंगे। परचूनिया जीएसटी की पूरी जमा राशि सरकार को देने के लिए मजबूर होगा।

इसी सिलसिले में मोदी जी ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक अभिनव खोज की है। उन्होंने कहा है कि सीए, अर्थात् मुनीम अर्थनीति की सेहत की रक्षा करता है! क्यों न उन्हें इस महान खोज के लिए अर्थनीति में नोबेल पुरस्कार का हकदार माना जाए! चाटर्ड एकाउंटेंट्स के संस्थान के आयोजन को संबोधित करते हुए मोदी जी भारत में सीए लोगों को लाखों सेल कंपनियों के होने का राज कुछ इस प्रकार बता रहे थे, जैसे इन लोगों के लिए यह कोई रहस्य रहा हो ! व्यापार से जुड़े तमाम लोग मोदी के अर्थ-रक्षकों, इन सीए की भूमिका को वैसे ही जानते हैं, जैसे आरएसएस के गो रक्षकों की वास्तविक भूमिका को जानते हैं। ये ही तो कर चोरी की अनीतियों की जड़ में हैं।

 

संघ के प्रचारकों की मनोवैज्ञानिक सचाई यह भी है कि वे हमेशा दुकानदारों की सोहबत में रहते आए हैं। इसीलिए उनके प्रति इनमें एक स्वाभाविक ईष्र्या दबी रहती है। इसी प्रकार, संघ वालों में भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल न होने का एक अपराध बोध भी है, जिसके कारण अब वे हर रोज एक आजादी की जंग लड़ते रहते हैं। इन्होंने  राममंदिर आंदोलन को आजादी की दूसरी जंग कहा था, फिर नोटबंदी को और अब प्रधानमंत्री जीएसटी को भी आजादी की जंग बता रहे हैं।

 

नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक इनकी नीतियों के इन मनोवज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। नोटबंदी के दिनों की तरह ही भाजपा के नेताओं के सुर में सुर मिला कर टेलिविजन चैनलों ने चीखना शुरू कर दिया है कि जीएसटी चीन को चकनाचूर कर देगा, पाकिस्तान को खत्म और विदेशों में जमा काला धन देश में आ जाएगा। प्रधानमंत्री भी इसे नोटबंदी की तरह ही काला धन को खत्म करने से जुड़ी अपनी एक और मुहिम बता रहे हैं।

 

सच कहा जाए तो आज भारत के प्रधानमंत्री की बातों का दो कौड़ी का भी मूल्य नहीं रह गया है। शायद ही कोई उनकी कही बातों पर यकीन करता होगा! वे क्रमशः विज्ञापनों के प्रवंचक प्रचारक भर दिखाई देने लगे हैं। मोदी-मोदी का प्रायोजित शोर इस सच को नहीं छिपा सकता है। भारत के सर्वोच्च पदाधिकारी की विश्वसनीयता में इस प्रकार तेजी से गिरावट हमारे जनतंत्र के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है। इनकी नीतियों से सामाजिक जीवन में फैल रही अराजकता विकल्प के अभाव में बर्बर तानाशाही का भी रास्ता प्रशस्त कर सकती है।